राजस्थान में जल संरक्षण की विधियाँ
Traditional methods of water conservation in Rajasthan
खडीन:-
यह 15वीं शताब्दी में जैसलमेर में पालीवाल ब्राह्मणों द्वारा शुरू की गई वर्षा जल संरक्षण की एक विधि है जिसमें चारों और के क्षेत्र को ढालु बनाकर 1 खड्डेनुमा भाग में वर्षा जल का संग्रहण किया जाता है इसके एक किनारे पर सामान्यतः कच्ची दीवार बना दी जाती है खड़ीन में जिस क्षेत्र से पानी बहकर आता है उतने क्षेत्र को मदार घोषित किया जाता है जिसमें कचरा डालना व मल मुत्तर त्याना प्रतिबंधित होता है इसके पानी से की जाने वाली कृषि को खडीन कृषि कहा जाता है।
तालाब:- वर्षा जल संरक्षण हेतु निर्मित संरचना।
बावड़ी:- पुराने समय में शेखावाटी क्षेत्र में रजा महाराजाओं द्वारा जल संरक्षण हेतु किया गया पक्का निर्माण।
नाड़ी:- प्राकृतिक रूप से निर्मित गड्डेनुमा क्षेत्र जिसमे वर्षा जल एकत्र होता है।
टोबा :- नडी को कृत्रिम रूप से खोद कर अधिक घर किया गया क्षेत्र।
बेरी:- किसी बड़े जलस्रोत या तालाब के चारों तरफ निर्मित छोटी छोटी कुइयाँ जिन्हे ऊपर से ढका जाता है।
झालरा:- यह किसी बड़े जल स्रोत के निकट गड्डेनुमा क्षेत्र होता है जिसमे सामूहिक स्नान या धार्मिक अनुष्ठान किये जाते है इसका जल पेयजल के रूप में प्रयोग में नहीं होता है।
टांका /कुण्ड:- कृत्रिम रूप से निर्मित भूमिगत जल का स्रोत जिसका ऊपरी भाग ढ़का होता है तथा चरों तरफ ढालनुमा पायतन बनाया जाता है।
अगोर:- आँगन को ढालनुमा बनाया जाता है तथा एक छोटे गड्ढे में आँगन का पानी एकत्रित होता है इस गड्ढे को पाड़ या पार कहा जाता है।
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